Monday, October 10, 2022

माण्डना- मालवा की विलुप्त होती लोककला

 

माण्डना- मालवा की विलुप्त होती लोककला


पग-पग रोटी डग-डग नीर की पहचान लिए मालवा अंचल भारत के हृदय प्रदेश मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण भू-भाग होने के साथ ही ह्रदय स्थल भी माना जाता है । यहां की मीठी बोली मालवी अपनी मिठास को समाहित किए हुए संपूर्ण मालवा अंचल में बड़े प्रेम और आदर के साथ बोली जाती है।  मालवा की लोक संस्कृति, लोक कला, रीति रिवाज और परंपराएं आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है हां यह अवश्य है कि समय के साथ उनमें परिवर्तन अवश्य हुआ है ।  मालव प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध मालवा मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग के रूप में जाना जाता है । मालवा के बारे में दो पंक्तियां प्रचलित है-। " इत चंबल उत बेतवा मालव सीम सुजान, दक्षिण दिसि है नर्मदा, यह पूरी पहचान ।' मालवा की लोक कलाएं एवं परंपराएं अनूठी होने के साथ ही धर्म पर आधारित हैं । यहां की लोक कलाएं एक ऐसा दर्पण पटल प्रतीत होती है जिसमें इस क्षेत्र की संस्कृति का अनूठा चित्र देखा जा सकता है। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण लोककला है- माण्डना । 

                माण्डना मालवांचल में विभिन्न शुभ कार्यों, धार्मिक पर्वो और त्यौहारों पर मनाई जाने वाली लोक कला है जिसका स्वरूप भी विशेष अवसर अनुसार ही चित्रित किया जाता है। जिसके दो प्रकार प्रचलित हैं- भित्ति चित्र के रुप में और जमीन पर बनाया जाने वाले । 

                भित्ती चित्रों में प्रमुखत: माय माता, सरवण, नागचित्र, नोमी, अमावस, स्वस्तिक, संजा जो दिवार पर बनाये जाते हैं-              

मायमाता:- मालवा में विवाह के शुभ अवसर पर यह भित्ति चित्र बनाया जाता है जिसका धार्मिक महत्व यह है कि कुलदेवी को  मायमाता के रूप में प्रतीक स्वरूप स्थापित कर वर-वधु के सुखमय वैवाहिक जीवन एवं समृद्धि की कामना की जाती है । इसके पीछे पौराणिक मान्यता यह है कि हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों की अवधारणा दी गई है और विवाह को उन सोलह संस्कारों में से एक माना गया है । जब तक दुल्हा- दुल्हन मायमाता के यहां धोक नहीं लगा लेते तब तक लग्न पूर्ण नहीं माना जाता अर्थात विवाह की विधि को पूर्ण नहीं माना जाता। विवाह के तत्काल पश्चात दुल्हा-दूल्हन को कुलदेवी और भेरूजी के दर्शन कर आशीर्वाद प्राप्ति हेतु उनके मूल स्थान अर्थात कुलदेवी के मंदिर भेजा जाता है।   

सरवण- श्रावण मास में रक्षाबंधन के त्यौहार पर बनाया जाने वाला भित्ति चित्र है । धार्मिक ग्रंथ रामायण में उल्लेखित श्रवण कुमार को भगवान का स्वरूप मानकर उनका भित्ति चित्र बनाकर पूजा की जाती है, जो अपने नि:शक्त और दृष्टि हीन माता-पिता को  कांवड़ में बैठाकर कंधे पर उठाकर तीर्थयात्रा पर ले जाते हुए राजा दशरथ के हाथों अनजाने ही वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं। 

नागचित्र- श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नाग पंचमी का त्यौहार मनाया जाता है. इस दिन नागों का भित्ति चित्र बनाकर विधिवत पूजा  की जाती है और प्रत्यक्ष रूप में भी कालबेलिया जाति के सपेरों द्वारा लाये गए नागों की पूजा करके उन्हें दूध भी पिलाया जाता है । यह मान्यता है कि नाग देवता की पूजा करने से आपके जीवन की हर एक परेशानी नष्ट होती है और मनचाहे फल की प्राप्ति होती है. नाग पंचमी पर पूजा करके कालसर्प दोष का निवारण भी किया जाता है.

नोमी और अमावस- ये दोनों भित्ति चित्र श्रावण मास में बनाए जाते हैं । नोमी नवमी तिथि को और अमावस हरियाली अमावस के दिन बनाए जाने वाले भित्ति चित्र हैं । नोमी में नौ पंखुड़ियों का फूल बनाया जाता है ।  अमावस के भित्ति चित्र में मालवा की प्राचीन संस्कृति दिखाई देती है। इसमें महिलाएं, बच्चे, चांद-सूरज, फूल-पत्तियों सहित विभिन्न आकृतियां बनाई जाती हैं। निमाड़ अंचल में यह भित्ति चित्र जिरोती माता के नाम से प्रसिद्ध है। 

स्वस्तिक- किसी भी शुभ कार्य एवं शुभ अवसर के आरंभ पर बनाया जाने वाला भित्ति चित्र स्वस्तिक ही है । इसे कुमकुम से बनाया जाता है । इसे दीवार के अतिरिक्त किसी भी नवीन वस्तु  विक्रय होने पर उस वस्तु पर , जमीन पर चोकी रखने से पूर्व अनिवार्यतः बनाया जाता है। 

           संजा भित्ति चित्र को छोड़कर उपर्युक्त समस्त भित्ति गेरू(मेहरून रंग)और खड़िया मिट्टी या चाक(सफेद रंग) से माचिस की तीली पर रुई लपेटकर बनाएं जाते हैं किंतु स्वास्तिक कुमकुम से ही बनाया जाता है । 

 संजा- संजा भित्ति चित्र मालवा अंचल की सांस्कृतिक परंपरा को पुष्ट करने वाला लोक कला है । जो अश्विन मास (क्वांर महिना) में सोलह दिवस तक चलने वाले श्राद्ध पक्ष में मनाया जाता है । कुंवारी कन्याएं सोलह दिवस तक गाय के गोबर से घर के मुख्य द्वार की दीवार पर संजा बाई का भित्ति चित्र उकेरती हैं, जिसमें मुख्य रूप से भौंह, आंख,नाक, होंठ, सूरज, चांद आदि की आकृतियां आधारभूत रूप में बनाकर प्रतिदिन तिथिनुसार आकृति बनाकर गुलदावरी, कनेर, चंपा आदि के फूलों की पत्तियों से सजाया जाता है। सोलह दिवस की सोलह आकृतियां निर्धारित हैं जो इस प्रकार हैं- प्रथम दिन(पूनम)-पाटला अर्थात पटिए की आकृति, द्वितीय दिन (पड़वा)-हाथ से झलने वाले पंखा, तीसरा दिन (दूज)-बिजौरा, चौथा दिन (तीज)-घेवर (एक प्रकार की मिठाई), पांचवा दिन (चतुर्थी)-चौपड़/चौसर, छठा दिन (पंचमी) पांच कुंवारे- कुंवारी-, सातवां दिन (छठ)-बिलौनी और छाबड़ी, आठवां दिन (सप्तमी)-स्वस्तिक, नवां दिन (अष्टमी)-आठ पंखूड़ी का फूल,  दसवां दिन (नवमी)डोकरा-डोकरी (बुजुर्ग)-, ग्यारहवां दिन (दशमी)-दीपक, सीढ़ी या निसरनी,  बारहवां दिन (ग्यारस)-केले का पेड़ और मोर, तेरहवां दिन(बारस) बंदनवार, चौदहवां दिन (तेरस)-बैलगाड़ी, पंद्रहवां दिन (चौदस)-किलाकोट बनाना आरंभ, सोलहवां दिन (अमावस)-किलाकोट का समापन ।

                 तिथि अनुसार आकृतियों का निर्माण मालवा निमाड़ अंचल की समृद्ध लोक परंपरा और रीति रिवाजों को उल्लेखित करता है जैसे प्रथम दिन पाटले की आकृति इसलिए बनाई जाती है कि संजा बाई को एक अतिथि के रूप में उच्च आसन पर विराजित किया जा सके जो हमारी 'अतिथि देवो भव:' की परंपरा को भी पुष्ट करता है, अतिथि के आने पर उसके आराम का ध्यान रखा जाता है, इस बात को ध्यान में रखते हुए द्वितीय दिवस पंखे की आकृति बनाई जाती है।  स्वस्तिक जहां शुभता का प्रतीक है, वही घेवर जैसी मिठाई, बंदनवार की आकृति उल्लास का प्रतीक है । यह माना जाता है कि संजा बाई मालवा निमाड़ की बेटी है जो एक दिन ब्याहकर ससुराल चली जाएगी। इसलिए मायके में उनकी सुख सुविधा का पूरा ध्यान रखा जाएं । किलाकोट में संजा बाई के ब्याह एवं बारात, डोली, हाथी, घोड़ा, गब्दूघोषण आदि सभी की आकृतियां बनाई जाती है जिनके बनाने का कार्य दो दिवस तक चलता रहता है।      

                इसके पीछे अवधारणात्मक आयाम यह है कि प्रकृति का संरक्षण और गौधन का संवर्धन हो सके। इस लोकपर्व को वैज्ञानिक कारण भी है । वर्षा काल के पश्चात घरों में सीलन आदि हो जाती थी जिससे मच्छर, बैक्टीरिया आदि पनपने का डर हुआ करता था तो संजा पर्व के लिए घर की लिपाई-पुताई गोबर से करके गौमूत्र का छिड़काव किया जाता था जिससे घर की शुद्धता और पवित्रता बनी रहे । अमावस्या को बहते जल में संजा की आकृति को विसर्जित किया जाता है इसके पीछे यह मान्यता है कि गोबर के पोषक तत्व जल में मिलकर मिट्टी को और अधिक उर्वर बना देंगे। 

                जमीन पर बनाएं जाने वाले माण्डना चित्रकला में प्रमुखत: दो प्रकार के मांगने बनाएं जाते हैं गोलाकार और चौरस या चौकोर । गोलाकार माण्डना में कलश, पगल्या, आठ पंखूड़ी का फूल, आदि आकृतियां बनाई जाती है तो चौकोर माण्डना में दिवारी, फूल पत्तियों के साथ  दीपमाला, कैल का पेड़, मोर, कमल का फूल आदि बनाये जाते हैं । दिवारी, पगल्या, दीपमाला आदि दीपावली के शुभ त्यौहार पर बनाये जाते हैं । 

                जमीन पर बनाएं जाने वाले मांडणा की तैयारियां कुछ समय पूर्व से की जाती है। फर्श यदि कच्चा है तो उसे गोबर, पीली मिट्टी आदि से लीपकर पहले सूखने दिया जाता है । सूखने के पश्चात बुहारी (झाड़ू) से कचरा साफ करके फर्श को चिकना और स्वच्छ बनाया जाता है ताकि माण्डना बिना किसी अवरोध के लयबद्ध रूप से बनाया जा सके । 

                माण्डना अंकन हेतु पूर्व से गेरू जो मेहरून-लाल रंग का होता है,को चूर्ण रूप में एक छोटे-से मिट्टी के पात्र में पानी में रात्रि से भिगो दिया जाता है ताकि वह महीन हो जाएं । इसी प्रकार खड़िया मिट्टी या चाक को भी रात्रि से भिगो कर तैयार कर लिया जाता है। गेरु से मुख्य माण्डना बनाने के लिए बांस की छोटी किमची (अधिक पतली नहीं) में सूती कपड़े को फाड़कर छोटी-छोटी चिन्दियां बनाकर लपेट दी जाती है और उसका उपयोग कूंची के रूप में किया जाता है। उस माण्डने में भरावन के लिए सफेद रंग की खड़िया मिट्टी या चाक का उपयोग करके सूती कपड़े की छोटी-सी चिंदी से हाथों की अनामिका उंगली का उपयोग किया जाता है और सुंदर सुज्जित माण्डना तैयार करने हेतु उनके कोने पर छोगे बनाए जाते हैं । सम्पूर्ण मांडना के चारों ओर बूंदकी लगाकर सजाया जाता है ।  



                वर्तमान समय में फर्श पक्का और समयाभाव होने से वार्निश,आईल पेंट और ब्रश का उपयोग भी माण्डना चित्र कला में बहुतायत से हो रहा है और रेडीमेड बने हुए माण्डना और रांगोली का प्रचलन बढ़ता जा रहा है जो आजकल बाजारों में आसानी से उपलब्ध है । निष्कर्ष रूप में कहां जा सकता है कि संपूर्ण मालवा क्षेत्र लोककलाओं एवं परंपराओं से भरा हुआ है, किंतु वर्तमान पीढ़ी तक इनके हस्तांतरण की प्रक्रिया शिथिल होने से अब यह लोक कलाएं और परंपराएं लगभग विलुप्त ई के कगार पर हैं जिनके संरक्षण संवर्धन के प्रयास किए जाना अति आवश्यक है इन लोक कलाओं के चितेरे भी अब पारंपरिक कार्य छोड़कर अन्य रोजगारों में संलग्न हो रहे हैं । हालांकि सरकारों द्वारा इस हेतु समय-समय पर प्रयास किए जाते रहे हैं किंतु वृहद स्तर पर बहुआयामी एवं कारगर प्रयासों से ही इन लोक कलाओं को बचाया जा सकना संभव हो सकेगा ।          


                        स्वलिखित

                हेमलता शर्मा 'भोली बेन'

                राजेंद्र नगर इंदौर मध्यप्रदेश

                  

                  

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