शीर्षक -चाल वो संजा गोठन खेलवां ही चांला ।
भारत के आवखी दुनिया में परब वास्ते जाण्यो जाय हे । जिनी तरे से राजस्थान में गणगोर, असम में बिहू, हरियाणा में गुग्गानोमी, गुजरात में नवरात ने बिहार में छठ पूजा सरीखा लोक परब को प्रचलन हे, उनी तरे ज भारत को हियो मान्यो जाने वाला मध्यप्रदेश का मालवा-निमाड़ अंचल में मनायो जाने वालो लोक परब हे- संजा बई ।
संजा परब मालवा निमाड़ अंचल की सांस्कृतिक परंपरा के पुष्ट करने वालो लोक परब हे जो क्वांर मईना में सोला दन सराद पक्ष में मनायो जाय हे । कुंवारी नानी होण गाय का गोबर से घर का मुख द्वार की दिवाल पे संजा बई को मांडनो बणावे हे । इका लिए बड़ी मेनत से गाय को ताजो गोबर राम ने फेर उसे संजाबई की भोंया, आंख्यां,नाक, होंठ, सूरज, चंदा, ध्रुव तारो आदि तिथिनुसार आकृति होण बणय ने गुलदावरी, कनेर, चंपा आदि का फूलड़ा ने पत्ती से सजायो जाय हे। सोला दिन की सोला आकृति होण निर्धारित हे जसे कि पेला दन(पूनम)-पाटलो,दूजा दन (पड़वा)-हाथ से झलने वालो पंखो, तीजो दन (दूज)-बिजोरा, चौथा दन (तीज)-घेवर (एक तरे की मिठई), पांचवों दन (चतुर्थी)- चोपड़, छठा दन (पांचम)- पांच कुंवारा- कुंवारी, सातवां दन (छठ)-बिलोनी ने छाबड़ी, आठवां दन (सातम)- सातियो, नवो दन (आठम)-आठ पंखूड़ी को फूल, दसवों दन (नोमी)डोकरा-डोकरी-, ग्यारहवो दन (दशमी)-दीवो या निसरनी, बारहवो दन (ग्यारस)-केला को झाड़ ने मोर, तेरहवो दन(बारस) बंदनवार, चोदहवो दन (तेरस)-बेलगाड़ी, पंद्रहवो दन (चवदस)-तुलसी क्यारों, सोलहवो दन (अमावस)-किलाकोट ।
।
सोला दन तक रोज नानी होण इकट्ठी हुय ने संजा बई की आरती उतारे -
पेली आरती रई रमजोर,
काका बाबा की गलियों में,
फूल बिखेरूं कलियों में,
सिंघासन मेलूं दाता में,
तम लो संजा बाई आरती ।
छिपय ने परसाद को भोग- संजा जीम लें, चूठ लें, चुड़लो चमकय लें, चूड़ा उपर चांदनी, चांदनी ऊपर मोर, मोर नाचे दो घड़ी, मैं नाचूं सारी रात, चटक चांदनी-सी रात, फूलां भरी रे परात, एक फूलों घटी ग्यो, संजा बाई रूसी गी- भोजन गीत गाता हुवा लगाय ने फेर कटोरी में परसाद के बजय- बजय ने अपणी सेलीहोण से उको नाम बूझने को खेल खेले हैं ने परसाद के सुंघय ने , मीठो हे के चरको (तीखो) हे या फीको हे , असो पूछे ने फेर संजाबई का गीत गाय- संजाबई का लाड़ाजी, लुगड़ो लाया जाड़ा जी , म्हारा आंगन में केल उगी, काजल टीकी लो बई काजल टीकी लो, काजल टीकी लई ने म्हारी संजा बई ने दो, चाल वो संजा गोठन खेलवां ही चांला, खेलवां कई चाला दरी लिपणो ही छाबणो, नानी-सी गाड़ी लुढ़कती जाय, जिमे बैठी संजा बई से लेकर संजा तू थारा घरे जा । सोला दन तक यो मनोरंजक क्रम चले । पेला का टेम पे मनोरंजन को साधन भी यो ज होतो थो।
इके मनाने का पीछे यो कारण हे के प्रकृति को संरक्षण ने गोधन को संवर्धन हुय सके। इस लोकपर्व का वैज्ञानिक कारण भी हे । बरसात का बाद घरहोण में सीलन हुई जाय जिसे मच्छर, बैक्टीरिया आदि पनपने को डर रे तो संजा परब पे घर की लिपई-छबई गोबर से करी ने गोमूत्र को छिड़काव करने से घर की शुद्धता ने पवित्रता बनी रे ने अपण भी निरोगी रां । ।
खाली वेज्ञानिक नी बल्कि सामाजिक - सांस्कृतिक दृष्टि से भी यो परब माहत्तम रखाय हे । कम उमर की नानीहोण संस्कार, रिश्तों निभाने को भाव, जिनगी जीने का तौर तरीका, सलीका आदि खेल-खेल में ज सीखी जाय हे तो यो लोक परब सीधे-सीधे अपणे पर्यावरण ने अपणी संस्कृति से जोड़े हे । अमावस के बेता पाणी में संजाबई के परबई दियो जाय । इका पाछे या मानता हे के गोबर का पोषक तत्व पाणी में मिलय ने माटी के जादे उपजऊ बणय दे हे ।
मालवा- निमाड़ की लोक परंपरा का रूप में यो परब ग्रामीण अंचल में मनायो जाय हे । पण अब्बे इको चलन कम होतो जय रयो हे। इको कारण गोबर की मिलणो, टीवी, मोबाइल आदि को प्रभाव ने पढ़ई-लिखई का कारण सेर में तो संजा मांडनो बंद ज हुय ग्यो हे जिके संरक्षण बचाणो घणो जरुरी हे। इका वास्ते बच्चाहोण के संस्कार ने रीति-रिवाज, लोक परंपरा होण को ज्ञान करानो जरुरी हे नी तो असी परम्परा होण खतम ज हुई जायगी।
स्वलिखित
हेमलता शर्मा 'भोली बेन'
राजेंद्र नगर, इंदौर मध्यप्रदेश
No comments:
Post a Comment