Friday, February 28, 2020

मालवा को रंगीलो तेवार -होली

मध्य प्रदेश के आगर-मालवा जिले  के लगभग सभी श्रीनाथ मंदिरों में भगवान श्रीकृष्ण को होली के 5 दिन पूर्व से रंग गुलाल, अबीर एवं केसूडी के फूलों का पीला रंग बनाकर होली खिलाई जाती है। *"नंद के घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की"* गीत गाते हुए दर्शन करने आए  भक्त झूम उठते हैं । साथ ही उन पर भी रंग गुलाल उड़ाया जाता है । सभी के चेहरे खिले हुए रहते हैं और एक उल्लास का वातावरण निर्मित हो जाता है। विशेष बात यह है कि कोई भी व्यक्ति उस रंग से बचने की कोशिश नहीं करता है न उन्हें अपने वस्त्रों की चिंता रहती है, बल्कि रंगों से सराबोर होने के लिए लालायित नजर आते हैं।

आगर में होली का त्यौहार बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है ।  यहां पर जगह-जगह होली का डांडा रोपा जाता है । लगभग  प्रत्येक मोहल्ला, हर गली और हर चौराहे पर  होली का डांडा गाड़ा जाता है और होली बनाई जाती है। उसे फूल मालाओं एवं सीरींज आदि से सजाया जाता है आसपास मंडप बी ताना जाता है और रोशनी की जाती है। धुलंडी के एक दिन पूर्व होली का पूजन करने हेतु घरों से महिलाएं सज-संवर कर थालियां तैयार कर पूजन हेतु निकल पड़ती हैं। चारों और उल्लास का वातावरण होता है ।  संध्या समय को मोहल्ले की लगभग सभी महिलाएं घरों से एक दूसरे को बुलाते हुए होलिका पूजन करने पहुंचती है । होली का पूजन कर उसकी परिक्रमा आदि करती है। लगभग रात्रि 9-10 बजे तक यह क्रम जारी रहता है । अगले दिन तड़के चार बजे कण्डों और लकड़ियों से जमी होलिका  दहन मोहल्ले के वरिष्ठ व्यक्ति के हाथों किया जाता है  और घरों से समस्त पुरुष और बच्चे होली तापने हेतु पहुंचते हैं । साथ ही एक नारियल लेकर होली में होम करते हैं । इसके पीछे मान्यता यह है कि मौसम बदलते ही विभिन्न रोगों का संचार होने लगता है और मनुष्य को स्वस्थ रहने हेतु होलिका दहन का ताप या उष्मा उन रोगों को समाप्त करने में और मनुष्य को निरोगी रखने में सहायक होती है ।  साथ ही नारियल का होलिका में होम करने से घर की सभी बुराइयों और बुरी शक्तियों का विनाश हो जाता है।  इसके साथ ही शुरु होता है रंगों का त्योहार- होली । बच्चे पिचकारी में रंग भर कर एक दूसरे पर छिड़कने लगते हैं पुरुष और महिलाएं अलग -अलग टोलियों में एक- दूसरे को रंग लगाने हेतु घरों से निकल पड़ते हैं। दिनभर एक दूसरे के घरों में जाकर रंग लगाया जाता है और शाम को लगभग सभी मोहल्लों में ठंडाई घोटी जाती है । इस ठंडाई की विशेषता यह होती है कि इसमें भांग बिल्कुल भी नहीं मिलाई जाती है तथा यह गाय के दूध से ही बनाई जाती है ताकि बच्चे बूढ़े सभी लोग उसे ग्रहण कर सके और उनके स्वास्थ्य को नुकसान भी ना हो। साथ ही बेसन ‌चक्की , सेव आदि का सेवन किया जाता है । इस प्रकार होली का रंगीला त्यौहार हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है।
सुश्री हेमलता शर्मा
"भोली बैन"
आगर-मालवा

Thursday, February 27, 2020

जलेबी- मालवी मिठई के दवई


                                           जलेबी- मालवी मिठई के दवई


"जलेबी" शब्द वैदिक विज्ञान में सुणी ने थोड़ो-सो अचंभित होनो सुभाविक हे पण असल बात यां है कि जलेबी अपणी मालवी संस्कृति को ऊ हिस्सो है जो दवई का साते-साते भोत ज सुवादिष्ट मिठई भी हे ने भोत गुणकारी भी हे ।  जलैबी इनी बात की मिसाल हे कि उलझनहुण बी मीठी हुय सके हे।  जलेबी में जल तत्व  जादा होणे से इके जलेबी कयो जाय हे । मनक का डील में सत्तर फीसदी पाणी होय हे, इका वास्ते इके खाणे से जल तत्व की कमी पूरी होय  हे ।
   
                  जलेबी खे बिमारी काटने वाली दवई बी बोल्यो‌ जाय हे । गरमागरम जलेबी चामड़ा रोग को जोरदार ईलाज है।
                दुनिया का नब्बे फीसदी लोगोण जलेबी को
संस्कृत ने अंग्रेजी नाम नी जाणे ? कदी-कदी हूं तम बी सोचता जा होगा के आखिर कय के हे ।  संस्कृत में जलैबी के कुण्डलिनी,महाराष्ट्र में जिलबी ने बंगाल में जिलपी केवे हे ।जलेबी को भारतीय नाम जलवल्लिका हे ने अंग्रेजी में जलेबी के स्वीट्मीट (Sweetmeet) अने सिरप फील्ड रिंग केवे हे ।  बयरा हुण अपणा बालहुण से “जलेबी जूड़ो” भी बणय ले हैं। जलेबी अलग-अलग जगे तरे-तरे से बणे हे बंगाल में पनीर की, बिहार में आलू की, उत्तरप्रदेश में आम की, म.प्र. का मालवा छेत्र में खमीर उठय ने जलैबी बणाय हे तो बघेलखण्ड-रीवा, सतना में मावा की जलेबी खाणे को भारी चलन है।ग्रामीण-शहरी दोय छेत्र में दूध-जलेबी को नाश्तो करयो जाय हैं।जलेबी नरी तरे की बणे हे जसे डेढ आंटा, ढाई आंटा ने साढे तीन आंटा की होय है। अंगूर दाना जलेबी, कुल्हड़ जलेबी आदि की बनावट वाली गोल-गोल बणे है।

                                                जलेबी दो शब्दहुण से मिली ने बणे है।    जल + एबी मने यां शरीर में स्थित जल का ऐब (दोष) दूर करे हे। शरीर में आध्यात्मिक शक्ति, सिद्धि ने ऊर्जा में वृद्धि करी ने  स्वाधिष्ठान चक्र जाग्रत करणे में मदद करे है। जलेबी  खाणे से शरीर का सगला ऐब (रोग दोष ) बली जाय हे ।


                                              अघोरीगण आध्यात्मिक सिद्धि ने कुण्डलिनी जागरण वास्ते सुबे रोज जलेबी खाने की सलाह देवे हे । मैदा, जल, मीठा, तेल ने अग्नि इन पांच चीजां से बणी जलेबी में पंचतत्व को वास होय है । जलेबी खाणे से पंचमुखी महादेव, पंचमुखी हनुमान ने पाॅंच फणवाला शेषनाग की किरपा प्राप्त होय है!


                                               अपणा ऐब (दोष) जलाणे, काटणे वास्ते रोज जलेबी खाणो चिये । वात-पित्त-कफ मने त्रिदोष की शांति वास्ते सुबे खाली पेट दई का साते, वात विकार से बचणे वास्ते दूध में मिलय ने अने कफ से मुक्ति वास्ते गरमागरम चाशनी साते जलेबी खय जाय हे। इसे माथो दुखणो, माईग्रेन, पीलिया, पांडुरोग सरीखी बिमारी बी मिटी जाय है।  जिन लोगोण का पांव मे बिवाई फटने की परेशानी रेती हो, तो  21 दन लगातार जलेबी को सेवन करणे से दूर हुय सके।

                                                    जलेबी को भोत नाम हे। जलवा दिखाणे की इच्छा रखने वाला लोगोण के सदा सुबे  नाश्ता में जलेबी जरूर खानो चिये,  भगवान से जुड़ने  की कामना होय तो जलेबी जरुर खाणो चिये।

                                                                                                                     

                                                                                                                    तमारी अपणी
                                                                                                                        "भोली बेन"
           

Saturday, February 22, 2020

मालवा की विशेषताएं

मालवा अंचल मालवा के पठार का भूभाग है इसे पूर्व में मालव प्रदेश के नाम से जाना जाता था । मालवा क्षेत्र का नामकरण मालव जाति के आधार पर हुआ । इस जाति का उल्लेख सर्वप्रथम ईसा पूर्व चौथी सदी में मिलता है । मालवा क्षेत्र की राजनीतिक सीमाओं में समयानुसार परिवर्तन होता रहा है, फिर भी मालवांचल अपनी विशिष्ट लोक संस्कृति, परंपरा, भाषा एवं रीति-रिवाजों के कारण संपूर्ण देश में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है आइए जानते हैं आज मालवा की प्रमुख विशेषताओं के बारे में:-
1. मालवा की प्रसिद्ध नदियां - चंबल, शिप्रा, माही किंतु मोक्ष दायिनी शिप्रा का अपना विशिष्ट स्थान है । शिप्रा नदी के किनारे ही पवित्र तीर्थ नगरी उज्जैनी बसी हुई है ।
2. मालवा की मिट्टियां-
मुख्यतः यहां काली मिट्टी पाई जाती है जो मालवा क्षेत्र को अत्यंत उपजाऊ बनाती हैं ।इसी कारण यहां पर कपास, मूंगफली,सोयाबीन,गेहूं मक्का आदि फसलें प्रमुख रूप से उपजाई जाती है ।काली मिट्टी के अतिरिक्त कहीं-कहीं लाल पीली मिट्टी भी पाई जाती है।
3. मालवा के प्रमुख नगर-
उज्जैन धार मांडू विदिशा रतलाम मंदसौर बाग उदयगिरि इंदौर आगर मालवा देवास आदि किंतु मालवी बोली का प्रमुख गढ़ उज्जैन माना जाता है। मालवी बोली का स्वरूप विभिन्न स्थानों पर परिवर्तित होता रहता है।
4. मालवा का प्रमुख भोजन-
मालवा के लोगों का प्रिय भोजन दाल बाटी है। बाटी को मालवी बोली में गांकरी कहा जाता है । दाल बाटी के साथ लड्डू मिल जाए तो सोने पर सुहागा हो जाता है। मिठाई में जलेबी मुख्य रूप से पसंद की जाती है साथ ही बेसन की चक्की भी खाई जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में मुख्यतः मक्का से बनी हुई राबड़ी का प्रचलन है साथ ही अंबाड़ी की भाजी खाई जाती है। ज्वार की रोटी लहसुन की चटनी के साथ भी ग्रामीण क्षेत्रों में काफी पसंद की जाती है। समय-समय  पर खान-पान में बदलाव हुआ है, किंतु अभी भी दाल बाटी सर्वमान्य भोजन है। चाय यहां का प्रमुख पेय पदार्थ है यदि मालवा का व्यक्ति किसी के घर जाए और उसे चाय ऑफर न की जाए तो वह बुरा मान जाता है। चाय की महिमा इतनी ज्यादा है कि चाय के कारण शादी-ब्याह जैसे रिश्ते भी तत्काल बन जाते हैं।
5. मालवा की चित्रकला-
मालवा अंचल में मुख्य रूप से मांडना बनाया जाता है। पुराने समय में ग्रामीण क्षेत्रों में कच्चे मकान होते थे तथा जमीन भी गोबर आदि से लीप कर ही रखी जाती थी। उस गोबर से लीपी हुई जमीन पर गैरू और खड़िया से मांडने बनाने का चलन था। हालांकि अब धीरे-धीरे इसका स्थान रंगोली ने ले लिया है। इसके अतिरिक्त भित्ति चित्र के रूप में संझा सरवन, माता चित्र, स्वस्तिक, कलश, हाथी, बैलगाड़ी, चित्रावण आदि भी बनाए जाते हैं । वर्तमान में इनका प्रचलन भी कम हो गया है।
6. मालवा का प्रमुख लोक नाट्य-
मालवा का प्रमुख लोकनाट्य माच है। उज्जैन इस का गढ़ माना जाता है। मालवा क्षेत्र में यह कला विगत लगभग 200 वर्ष से प्रचलित है। इसके अतिरिक्त कलगी तुर्रा, हीड़ गायन, भरतरी गायन आदि भी प्रचलित है।
7. मालवा का प्रमुख नृत्य-
मालवा में विवाह आदि शुभ अवसर पर विभिन्न प्रकार के नृत्य किए जाते हैं जिसमें मटकी आड़ाखडा प्रमुख है इसके अतिरिक्त यहां गणगौर नृत्य की परंपरा भी है ।
8. मालवा के लोगों का पहनावा-
ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुष धोती कुर्ता और सिर पर पगड़ी पहनते हैं तथा कंधे पर गमछा रखते हैं। महिलाएं घाघरा लुगडा पहनती हैं। अब इसका रूप सीधे पल्लू की साड़ी ने ले लिया है। हालांकि वर्तमान समय में पहनावे में काफी अंतर आया है फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी लोगों को इस तरह की पोशाक पहने देखा जा सकता है।
9. मालवा की भाषा-
मालवा क्षेत्र की प्रमुख बोली मालवी बोली है किंतु वर्तमान में मालवी बोली को बोलने वाले लोगों की संख्या सीमित होती जा रही है और संपूर्ण मालवा क्षेत्र में हिंदी भाषा का ही प्रचलन है। कतिपय लोग मालवी बोली में काव्य रचना, आलेख आदि लिखकर मालवी में साहित्य सृजन कर रहे हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अत्यंत कम है इस कारण वर्तमान में मालवी बोली पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। मालवा की भोली बैन मालवी बोली को राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए विभिन्न मंचों के साथ जुड़कर प्रयास कर रही है।
10. मालवा के लोग-
मालवा के लोग सीधे सरल आचार विचार वाले होते हैं बिना किसी लाग लपेट और आडंबर के अपनी बात दूसरों के समक्ष रखते हैं और दिखावे में विश्वास नहीं करते किंतु वर्तमान में यह प्रवृत्ति भी धीरे-धीरे परिवर्तित होती जा रही है।
                                                                                                                         तमारी अपणी

                                                                                                                             भोली बैन

Wednesday, February 19, 2020

मालवी बोली की मिठास

मालवी बोली भारत के ह्रदय स्थल मध्य प्रदेश के संपूर्ण मालवा क्षेत्र में बोली जाती है । इसके अंतर्गत मुख्य रूप से उज्जैन इंदौर आगर मालवा रतलाम देवास मंदसौर धार राजगढ़ आदि जिले सम्मिलित है। मालवी बोली का अपना इतिहास रहा है । मालवी बोली सरल सहज और मीठी बोली है जो सहज ही हास्य उत्पन्न करती है जैसे "मालवा को मनक सीदो सट रे,बस ओके चा नी पिलाव तो बांको हुई जाय।" एक और उदाहरण देखिए-" बयरा बोली धणी से तमारे  किस (भुट्टे की मालवी डिश) दूं कई ।" इस प्रकार मालवी बोली सुनने में मीठी लगती है और सहज हास्य उत्पन्न करती हैं । राजस्थान की सीमा से लगे जिले जैसे रतलाम आगर नीमच मंदसौर आदि में बोली जाने वाली मालवी बोली में थोड़ा सा राजस्थानी टच आता है। मालवी बोली में गाए गए कबीर के दोहे भजन आदि राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक अपनी मिठास के कारण प्रसिद्ध है। पग पग रोटी डगडग नीर की पहचान लिए मालवा अंचल मध्यप्रदेश का महत्वपूर्ण भाग होने के साथ ही ह्रदय स्थल भी माना जाता है । यहां की मीठी बोली मालवी अपनी मिठास को समाहित किए हुए संपूर्ण मालवा अंचल में बड़े प्रेम और आदर के साथ बोली जाती है।

                   
                     मालवा की लोक संस्कृति,लोक विधाएं, रीति रिवाज और परंपराएं आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है हां यह अवश्य है कि समय के साथ उनमें परिवर्तन अवश्य हुआ है मालवा की लोक परंपरा अनूठी है। मालव प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध मालवा मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग के रूप में जाना जाता है और मालवा की लोक परंपराएं धर्म पर आधारित हैं साथ ही यहां की सामाजिक परंपराएं एक ऐसा दर्पण पटेल प्रतीत होती है जिसमें इस क्षेत्र की संस्कृति का अनूठा चित्र देखा जा सकता है। मालवा के बारे में दो पंक्तियां प्रचलित है-। " इत चंबल उत बेतवा मालव सीम सुजान, दक्षिण दिसि है नर्मदा, यह पूरी पहचान ।'
                      निष्कर्ष रूप में कहां जा सकता है कि संपूर्ण मालवा क्षेत्र मीठी बोली की मिठास एवं लोक परंपराओं से भरा हुआ है ।

गाजबीज माता को बरत -मालवी लोक परम्परा

 गाजबीज माता को बरत -मालवी लोक परम्परा अपणो मालवो निमाड़ तीज तेवार की खान हे। यां की जगे केवात हे - बारा दन का बीस तेवार। केणे को मतलब हे कि...